दो दिलों की राहें
हम ही जीतेंगे कह दो ये सबसे मगर - कविता
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वेबिनार के रूप में बन्दर को मिला उस्तरा-आईना : व्यंग्य
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छीछालेदर रस से सराबोर सम्मान और उपाधि ले लो रे
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घूँट-घूँट ज़िन्दगी
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मखमली एहसास की खुशबू
मोबाइल को मेज पर टिका कर वह कुर्सी पर पसर गया. ‘कभी अपने घर को देखते हैं’ की तर्ज़ पर उसने एक नजर ड्राइंग रूम कम स्टडी रूम पर दौड़ाई. अस्तव्यस्त तो नहीं कहा जायेगा मगर करीने से लगा भी नहीं कहा जा सकता. पढ़ने के अलावा भी तमाम शौक के उसी कमरे में अपना आकार लेने के कारण बहुत सी चीजों ने जगह-जगह कब्ज़ा कर रखा था. ऐसा होना स्वाभाविक है क्योंकि अकेले प्राणी के लिए क्या ड्राइंग और क्या स्टडी.
चौंकने जैसी स्थिति में वह किताबें, कागज, कलर्स, कैनवास आदि को उनकी जगह देने के लिए उठा. उसके आने के पहले सभी चीजों को यथास्थान कर दिया जाये अन्यथा कमरे में घुसते ही इसी बात पर लेक्चर मिल जायेगा. याद आया उसे, जब पहली बार वह उसके कमरे पर आई थी तो ‘यही सब खाते-पीते हो क्या? इन्हीं पर सोते-बैठते हो?’ के साथ उसने इधर-उधर बिखरी किताबों, कागजों, पेन आदि को समेटना शुरू कर दिया था. वह दिन याद आते ही एक मुस्कान के साथ उसने हाथ में पकड़ी किताबों को ज्यों का त्यों छोड़ दिया. आज उसके हाथ से स्टडी रूम संवर जाएगा तो बहुत दिनों तक उसकी महक बनी रहेगी.
साढ़े पाँच बजे महकती पवन की तरह उसका आना हुआ. उसके आने की आहट मात्र ने उन दिनों में पहुँचा दिया जबकि वह उसे अपनी सारी ज़िन्दगी में खुशियाँ बिखेरने के सपने देखा करता था. समय का ही खेल है जिसे ज़िन्दगी भर के लिए उसके साथ होना था वह चंद पलों के लिए अपने एहसासों की बारिश करने आई है.
“आदत अभी तक न बदली तुम्हारी. अभी भी कागज, रंग ही खाते हो. इन्हीं को ओढ़ते-बिछाते हो.” स्टडी रूम में कदम रखते ही उसके वर्षों पुराने अंदाज ने उसे भावनाओं से सराबोर कर दिया.
“एक मिनट रुको” कहते हुए वह सोफे से किताबों को उठाने के लिए आगे बढ़ा.
“तुम रहने ही दो. इतने ही काम वाले होते तो कमरा ऐसा न रहता. रुको मैं सही कर देती हूँ.” पूरे अधिकार के साथ वह कमरे को सजाने में जुट गई.
पहले तो वह कमरे के दरवाजे से टिका उसे सामान लगाते और उस पर बड़बड़ाते देख मुस्कुराता रहा फिर उसकी मदद करने लगा. इस दौरान दोनों के बीच पुराने दिनों की तरह हँसी-मजाक, छेड़छाड़ चलती रही. कभी एक हलकी सी मुस्कान के साथ बात आगे बढ़ती तो कभी ठहाकों के साथ.
“अब लग रहा है जैसे कोई रहता हो यहाँ. आती रहा करो बीच-बीच में इसे भी ज़िन्दगी देने के लिए.” कह कर उसे छेड़ा.
“मैं तो ज़िन्दगी भर ज़िन्दगी देने के लिए आने वाली थी....” आगे के शब्दों पर होंठों के कंपन ने अवरोध पैदा किया. ख़ामोशी ने चीखना शुरू किया ही था कि “कुछ करना सीख लो या अब भी मेरे भरोसे ही रहोगे?” कहते हुए उसने माहौल को खुशनुमा बनाया.
उसके कुछ कहने के पहले ही अन्दर से नौकर चाय लेकर आया.
“चलो जल्दी चाय पी लो फिर कहीं बाहर चलते हैं खाना खाने.....” उसने बात काटते हुए अपनी बात जोड़ी “नहीं, कहीं बाहर नहीं जायेंगे. दो दिन से बाहर का खा-खाकर बोर हो गई हूँ. यहीं कुछ बनाती हूँ मैं.”
उसे बिन माँगे बहुत कुछ मिल गया. काश यह पल यहीं रुक जाए हमेशा के लिए.
“ओ हैलो, इधर ध्यान दो. कुछ है भी तुम्हारी किचन में या ऐसे ही बना रखा है अपने स्टडी जैसा?” उसके चेहरे पर अप्रत्याशित ख़ुशी, चमक और उसे कहीं खोया सा देख उसने टोका.
थोड़ी देर बाद किचन में उसके प्यार, स्नेह की रेसिपी अपनी खुशबू बिखरने लगी. किचन के एक कोने से टिका मंत्रमुग्ध सा उसे निहारे जा रहा था. इस समय उसके विचारों पर, पूरे व्यक्तित्व पर वही छाई हुई थी. बातों का जवाब न मिलने पर उसने पलट कर देखा तो खुद को ऐसे निहारते देखने पर एक पल को वह भी असहज हो गई.
“ऐसे क्या घूरने में लगे हो? पहली बार देख रहे हो?”
“कुछ नहीं. बस.... ऐसे ही....”
“अच्छा चलो, ज्यादा नौटंकी नहीं. चलो, भागो यहाँ से. डायनिंग टेबल सही करो और हाँ सलाद काट लो.” कहते हुए उसने धक्का देकर उसकी नजरों को अपने चेहरे से हटाया.
अपनी बाँहों पर उसकी उँगलियों का एहसास लेकर वह हँसते हुए डायनिंग टेबल की तरफ चल दिया.
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(लिखी जा रही प्रेम कहानियों सम्बन्धी पुस्तक में से )
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जलेबियाँ बनी लॉकडाउन काल की वायरस
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इंतजार भरे जीवन का एक और इंतजार
“नहीं आ पाऊँगी.” उसने बड़े धीमे से कहा.
इतने सारे सवालों के उत्तर में उसे जोरदार हँसी सुनाई दी, जो देर तक मोबाइल के सहारे उसके दिल-दिमाग में, उसके आसपास घूमती रही.
“इतने परेशान न हो. शाम तक आती हूँ.”
उसकी साँस में साँस आई यह सुन कर. “शाम माने, कितने बजे?” उसने आने के बारे में पूरा इत्मिनान करना चाहा.
इधर उधर की कुछ बातों के बाद दोनों ने बातचीत को विराम दिया. शाम को उसके आने की खबर अपने आपमें खुश करने वाली थी. वह सोचने लगा कि उसके न आ पाने की बात पर वह इतना बेचैन क्यों हो गया था? उससे मिलने की इतनी बेताबी क्यों है? दो-चार पल की मुलाकात में क्या वर्षों की बातचीत समाप्त हो पायेगी? कितनी-कितनी बातें हैं जो उसके साथ करनी हैं. कितना कुछ है जो बताना है. कितना कुछ है जो उससे सुनना-जानना है.
अब फिर इंतजार शुरू. शाम का इंतजार. शाम को किस समय आएगी? कितनी देर रुकेगी? दोपहर के बाद उसने अपने हिसाब से शाम का निर्धारण करना शुरू कर दिया. शाम चार बजे के बाद तो वह बार-बार घड़ी देखता, दरवाजे की तरफ देखता. घड़ी की सुई लगातार आगे बढ़ती हुई उसी धड़कन बढ़ा रही थी. कभी मन में उसके न आने की शंका उठती. कभी समय न निकाल पाने की मजबूरी दिखाई देती. कभी उसे लगता कि अपने घर पर क्या बताएगी कि कहाँ जा रही है, इसलिए न आये. कभी सोचता कि कहीं उसने मन रखने के लिए ही आने की हामी तो नहीं भर दी?
तभी मोबाइल की मैसेजटोन ने उसका ध्यान खींचा. उसी का मैसेज था, एक स्माइली के साथ, ‘आती हूँ थोड़ा सा धीरज धरो.’
मैसेज पढ़ते ही उसके चेहरे पर मुस्कान तैर गई. पहले सोचा कि ‘लगा दूंगी मैं प्रेम की फिर झड़ी’ लिख कर रिप्लाई कर दिया जाए. फिर कुछ सोच कर उसने अपना विचार बदल दिया.
‘धीरज ही धरे हैं.’ लिख कर उसने रिप्लाई दिया और उसका इंतजार करने लगा.
इंतजार भरे उसके जीवन का एक और इंतजार.
(लिखी जा रही प्रेम कहानियों सम्बन्धी पुस्तक में से )
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